श्रौत और स्मार्त यज्ञों में प्रयुक्त यज्ञीय पदार्थ एवं पात्र परिचय
श्रौत-स्मार्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये पात्रों को आवश्यकता होती है । जिस प्रकार कुण्ड मण्डप आदि को विधि पूर्वक निर्धारित माप के अनुसार बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ-पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है । विधि पूर्वक बने यज्ञ-पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है ।
नीचे कुछ यज्ञ-पात्रों का परिचय दिया जा रहा है । इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभिन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रन्थों के आधार पर दिया जाता है।
१-अन्तर्धान काट
वारण काष्ठ का आध अंगल मोटा, बारह अंगुल का अर्थ चन्द्राकार पात्र । गार्हपत्य कुंड के ऊपर पत्नी संयाज के समय देव पलियों को आड़ करने के लिए इसका उपयोग होता है।
२-पशु-रशना
तीन वाली बारह हाथ को पशु बाँधने की रस्सी।
३-मयूख
गूलर का एक अंगुल मोटा, बारह अंगुल का वत्स-बन्धन के लिये शकु मयूख होता है।
४-वसा हवनी
पाक भाण्ड स्थित स्नेह-बसा हवन करने का जूहू सदृश घाऊ का सुक ।
५-वेद
दर्शपूर्णमासादि में ५० कुशाओं से रचित वेणी सदृश कुशमुष्टि ।
६-कर्पूर-
चातुर्मास्यादि यज्ञ में बड़े गर्त्तवाला धान पूँजने का पात्र ।
७-अनुष्टुब्धिः-
जुहू सदृश पीपल का सुक ।
८-विष्टतिः-
उद्गाता द्वारा साम मन्त्रों की गिनती के लिये, नीचे चतुरस्र ऊपर गोल, दश अंगुल की शलाका ।
९-पूर्ण पात्र-
दर्शादि इष्टि में यजमान के मुख धोने के लिये जल रखने की स्मार्त-प्रोक्षणी ।
१०-शराव-
पायस रखने के लिए मृत्तिका का बढ़े मुख एवं लोटे वाला पात्र ।
११-शकट-
सोम को रखने के लिए वारण काष्ठ का ढाई हाथ लम्बा त्रिकोण, डेढ़ हाथ चौड़ा दो हाथ ऊँचा शकट, जिसमें एक हाथ ऊँचे दो चक्र हों।
१२-परिप्लवा-
कलश से सोमरस निकालने वाला काष्ठ का बना सुक, दस अगुल लंबा हंसमुख सदृश नालीदार पाँच अंगुल गोलाई में बना हुआ ।
१३-पशुकुम्भी-
पशु श्रवण के लिये तैजस् पात्र ।
१४-मुसल-
खैर काष्ठ का बना, मध्य में कुछ मोटा दस अंगुल का मूसल ।
१५-ऋतुग्रह पात्र-
काष्मरी या पीपल का बना प्रोक्षणी पात्र जिसमें हंसमुख सदृश नलिका होती हैं ।
१६-आज्यस्थाली-
घृत गर्म करने का मण्मय पात्र।
१७-उपवेष-
अंगारों को दूर करने के लिये वारण काष्ठ का बना, हाथ के सदश पाँच अंगल बना हुआ दण्ड।
१८-स्थाली-
सोमरम रखने की मृण्मयी थाली ।
१९-इडापात्री-
ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु, अग्नीत् और जाता है। यजमान के भाग रखा जाने वाला पात्र ।
२०-मेक्षण-
चरू हष्टि में इससे चरू का ग्रहण ओर होम होता है।
२१-पृषदाज्य ग्रहणी-
पीपल का सुक, जिससे दधि मिश्रित घी ग्रहण किया जाता है।
२२-प्रचरणी-
सोम याग में वैकडूत काष्ठ का बना
२३-परशु-
खदिर काष्ठ का बना हुआ परशु ।
२४-अग्नि होत्र हवणी-
श्रौत अग्नि होत्र में तोड़ने के लिये विककत-काष्ठ का बना, जुहू के सदृश्य बाहु मात्र लम्बा स्रुक।
२५-अभ्री-
वारण काष्ठ की बनी नुकीली अध्रि का वेदी खनन में उपयोग होता है।
२६-दोहन पात्र-
वैकंकत का प्रणाली रहित सदण्ड पोरोक्षणी पात्र सदृश आकार होता है ।
२७-दर्वी-दण्ड सहित कलछी ही दर्वी है ।
२८-अधिपवण-
फलक-(दृढ़)धारण काष्ठ के बने सोमलता कूटने का एक हाथ लम्बा, बारह अंगुल चौड़ा दो काष्ठ फलक होते हैं।
२९-असिद-
कुशा काटने के लिये खैर का छुरा ।
३०-अन्याहार्य पात्र-
दर्शपूर्ण-मास में, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्नीघ्र को दक्षिणा में दिया जाने वाला ओदन जिसे पात्र में पकाया जाता है।
३१-ग्रावा-
पत्थर का बना सोलह अंगुल का मूसल, जिससे सोमलता कूटी जाती है।
३२-उपमृत-
पिपलकी जुहू सदृश स्रुक उपभृत होती है।
३३-उत्पवन पात्र- प्रोक्षणी पात्र सदृश होता है।
३४-उपांशु सवन-
उपांश नामक सोमलता को जिस पाषाणसे कूटा जाता है वह।
३५-उलूखल-
पलास, खैर, वारण का जानु प्रमाण ऊखल।
३६-एक धन-
सोमरस को बढ़ाने वाले जल ।
३७-मूरशल-
वारण पलास, खैर का दश अंगुल का मूरशल।
३८-जुहू-
श्रौत कर्म में जिस सुक से हवन किया जाता है।
३९-चमस-
चौकोर प्रणीता पात्र सदृश सोमरस को रखने, होम करने और पानी के लिये चमस होते हैं। ये दस भौति के होते हैं।
४०-यजमानाभिषेक सन्दी-
वाजपेय यज्ञ में यजमान को बैठने के लिये मूंज की बनी हुई एक हाथ लम्बी चौड़ी चतुष्कोण:-लघु खाट ।
४१-यूपरशना-
आठ हाथ लम्बी दूनी कुश की रस्सी, यूप में लपेटने के लिये यूपरशना होती है ।
४२-शृतावदान-
पितृ-यज्ञ में पक्व पुरोडाश तोड़ने के लिये विर्ककत-काष्ठ का होता है।
४३-पूत भृत-
सोम रस धारण करने वाले स्वर्ण या मृण्मय-कलश।
४४-पुरोडाश पात्री-
वारण काष्ठ की पुरोडाश के स्थान में प्रयुक्त होने वाली पात्री ।
४५-पिन्वन-
वारण का सुक मुख सदृश बना बिना दण्ड का पात्र ।
४६-पान्तेजन कलश-
पशु अङ्गों को प्रक्षालन करने का जल जिस कलश में रखा जाता है ।
४७-परिशास-
कलछी मुख के सदृश महावीर पात्र को पकड़ने लायक गूलर के बने पात्र ।
४८-सन्नहनः-
इध्म(यज्ञ हेतु लकड़ी) और वर्हि बाँधने के लिये कुशा की वेण्याकार गुंथी रस्सी ।
४९-होतृ सदनः-वरना काष्ठ की बनी होता के
बैठने की पीठ ।
५०-सोमा सन्दी-
गूलर की बनी चार पाँवों वाली मुञ्ज की रस्सी से बनी हुई सोम रखने के लिए बनी आसन्दी।
५१-सोम पर्याणहन
वस्त्र से बंधे सोम को ढाँकने का वस्त्र ।
५२-सम्भरणी-
वारण काष्ठ का बना सोम रखने का कटोरा ।
५३-शंकु -
गूलर का दश अंगुल लम्बा अग्निष्टोमादि यज्ञ में दीक्षिता पत्नी के कन्डूयनादि में उपयुक्त होने वाला।
५४-उदत्रवन-
सोम याग में अम्भृण पात्रों से जल निकालने के लिये मिट्टी की दो हाथ लम्बी, सुत्री के मुख से दूने मुख की, जुहू सदृश सुक ।
५५-उदयमनी-
उदुन्बर की दो हाथ लम्बी, स्रूचि के मुख से दुगने मुख वाली, जुहू सदृश सुक ।
५६-इध्म-
पलाश की एक हाथ लम्बी, सीधी,सुन्दर त्वचा सहित एकशाखा वाली समिधा ।
५७-वर्हि
असंस्कृत तथा असंख्यात कुशा ।
५८-सम्भरण पात्र-
वाजपेय यज्ञ में हवन किये जाने वाले सत्रह प्रकार के अन्नों को जिस पात्र में रखा जाता है।
५९-वाजिन भाण्ड-
फटे दूध के द्रव भाग (वाजिन) को जिस भाण्ड में रखा जाता है।
६०-उपसर्जनी पात्र-
यजमान के लिये गार्हपत्य अग्नि में जल को इस पात्र में गर्म किया जाता है।
६१-रौहिणकपाल-
मृत्तिका का पका पकायापात्र जो रौहिणक पुरोडाश पकाने के लिये बनाया जाता है।
६२-योकत्र-
दर्शपूर्णमासादि यज्ञ में यजमान पत्नी के कटि प्रदेश में बांधने के लिये तीन लड़ी मुञ्ज की बनी वेणी सदृश रस्सी ।
६३-उद्गानासन्दी-
गवामय गवामयन यज्ञ में उद्गाता बैठने के एक हाथ लम्बी चौड़ी मुञ्ज से बिनी मीड़।
६४-विघन-
पीपल का एक हाथ का शंकु ।
६५-विकङ्कत शकल-
विकङ्कत काष्ठ की दश अंगुल की समिधा ।
६६-दण्ड-
सोमयाग में यजमान तथा मैत्रावरुण के लिये मुख तक लम्बाई का गूलर का बना दण्ड ।
६७-दधि धर्म-
प्रग्वर्य में दस अंगुल का दधि को ग्रहण तथा हवन के लिये गूलर का बना पात्र ।
६८-दारुपात्री-कात्यायनों की पात्री ।
६९-धवित्र-मृगचर्म से बना पंखा ।
७०-धृष्टि-
अंगार भस्मादि हटाने के लिये विकेकत काष्ठ का बना पात्र ।
७१-कृष्ण विषाण-
कृष्ण मृग का शृंग ।
७२-वाजिनचमस
फटे दूध के द्रव भाग को रखने का प्रणीता सदृश पात्र।
७३-गलग्रही
तांबा या पीतल की एक हाथ की सण्डसी।
७४-स्रुक-
विकंकत काष्ठ का बना बाहु प्रमाण लम्बा हवन करने का हंसमुख सदृश चौंचदार पात्र ।
७५- यूप
खैर का बना लम्बा शंकु । इसकी लम्बाई भिन्न यज्ञ में भिन्न रखी जाती है।
७६- ग्रह
यह विवेकत काल का बना उलूखल सदृश सोमरस तथा होमोपयोगी वस्तु रखने का पात्र ।
७७-स्फय
अप्रवेदी को खोदने रेखा करने के लिये एक हाथ लम्बा चार अंगुल चौड़ा खैर काष्ठ का वज्र दंड।
७८-स्रुवा
होम करने के लिये खैर- का बना गोल छि संयुक्त एक हाथ लम्बा पात्र ।
७९- ऋतु पात्र ग्रह काष्मर्य-
पीपल के प्रोक्षणी पात्र सदृश दोनों तरफ हंसमुख सदृश
सोमरस ग्रहण करने का पात्र ।
८०-प्रोक्षणधानी-
जुहू(अग्नि में घी की आहुति देने का अर्धचन्द्राकार चम्मच) के सदृश बना स्रुक
८१-शूल
धारण काष्ठ का बना, अभि सदृश शूल होता है।
८२-पाशिनहरण-
ब्रह्मा को हुत शेष, इस चार - अंगुल लम्बे-चौड़े वारण काष्ठ से बने चौकोर पात्र द्वारा दिया जाता है।
८३-निश्रेणी-
वाजपेय यज्ञ में सत्रह हाथ यूप से ऊपर जाने के लिये वारण काष्ठ से बनी सीढ़ी।
८४-नेत्र-
सन और गौपुच्छ के वालों से बनाई गयीचार हाथ की तीन लड़ वाली गूंथी हुई वेणी ।
८५-निदान-
सोमयाग में गौ तथा बछड़े को बांधने के लिये बनी रस्सी।
८६-चात्र उपमन्थ
अरणि मन्थन के लिये आठ अंगुल का बना काष्ठ शंकु ।
८७-चपाल-
सोमयाग में पलास का दश अंगुल लम्बा एक अंगुल गोल आर-पार छिद्र वाला पात्र विशेष ।
८८-शम्या-
दर्शपूर्ण मासादि में सिल-लोढ़ी के कुट्टन आदि में प्रयुक्त होने वाला पात्र विशेष ।
८९-षडवत्तपात्र-
अग्नीध्र ऋत्विक् को भाग देने के लिये वारण काष्ठ का बना एक विशेष प्रकार का पात्रा।
९०-सगर्तपुरोडाशपात्री-
सर्वहुत पुरोडाश के स्थापन और होमादि में प्रयुक्त होने वाला पात्र ।
९१-स्वरू
पशुलता स्पर्श एवं होमादि में प्रयुक्त होने वाला दश अंगुल का पगाकार पात्र।
९२-स्थूण-
गौ मांधने के लिये बनी दी।
९३-सेम्मोपनहन-
सोमलता बाँचे जाने वाले दोहरे चौहरे वन्त्र।
९४-दृषत उपला-
पुरोडाश के पेषण में प्रयुक्त होने वाले दश अंगुल लम्बे आठ अंगुल चोड़े पाषाण।
९५-करम्भ पात्री-
दक्षणरिन में पक्य रातु तथा दधि रखने के छोटे-छोटे गोला पात्र ।
९६-पञ्चबिलापात्री:-
कृष्ण यजुर्वेदियों के काम आने वाला पात्र।
९७-पिशीलक-
चातुर्माससान्तर्गत गृहमेपि में उपयोग होने वाला पायस रखने का भातु का बढ़े मुख वाला पात्र ।
९८-परिवेचन घट-
आपस्तम्ब के लिये आधबनीय सदृश कलश ।
९९-त्रिविला पात्री-
वारण काठ से बना एक विशिष्ट भाँति का बना पात्र ।
१००-दशा पवित्र-
जीवित भेड़ के ऊनों से बना सोमरस छानने के लिये बना हुआ छन्ना ।
१०१-कूर्च-
सायं-प्रात: अग्निहोत्र के समय स्रुक रखने का वारण काष्ठ से बना पात्र विशेष ।
१०२-ओविली-
मन्थन-दण्ड को दबाने के लिये खैर काष्ठ का बना उपमन्थ ।
१०३-समित्-
पलासादि की दश अंगुल लम्बी सुन्दर अविशाखा लकड़ी।
१०४-महावीर-
सोमयाग में दीपक रखने के लिये मृत्तिका से बना एक विशिष्ट पात्र ।
१०५-मेखला-
यजमान के कटि-प्रदेश में बाँधने के लिये चार हाथ की मुञ्ज से वेणी सदृश गुंथी रस्सी।
१०६-तानूनस्त्र चमस-
इष्टि के अनन्तर सोलहों ऋत्विक जिस घृत को स्पर्श कर
परस्पर अद्रोह की शपथ लेते हैं, उस घी को रखने का पात्र ।
१०७-धर्मासन्दी-
धर्म सम्बन्धी सभी पात्रों को रखने के लिये तीन हाथ ऊँचा गूलर का बना आसन विशेष ।
१०८-धुवा-
वारण काष्ठ का बना जुहू के सदृश वाहुप्रमाण स्रुक जो यज्ञ के अंत तक रखी जाती है।
जय गुरुदेव दत्तात्रेय
जय हिंद
This is in link of my past experience of blogs details ... Read again the same book in 2020 September... see the link
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