Sunday, October 4, 2020

महाभारत के यज्ञ

महाभारत में जिन यज्ञों का उल्लेख है उनके नाम ये हैं-अश्वमेध, राजसूय, पुण्डरीक, गवामयन, अतिरात्र, वाजपेय, अग्निजित् एवं बृहस्पति सब इन यज्ञों से अश्वमेध एवं राजसूय का ही किञ्चिद्विस्तृत वर्णन मिलता है शेष का केवल नाम भर ही आया है महाभारत के दो राजसूय प्रसिद्ध हैं । 

एक तो महाराज युधिष्ठिर ने किया और दूसरा श्रीकृष्ण ने अश्वमेध तो अनेक किये जिनका विस्तारपूर्वक उल्लेख महाभारत के पर्षों में बिखरा पड़ा अकेले शान्तिपर्व में ही कितने ही धर्मात्माराजाओं के अनेक अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख है । 

दृष्टान्त हम विविध दे सकते है पर नाम रूप यज्ञ का प्रावधान हमे समझना जरूरी होता है। ओर वह संस्कृत मातृका ओर अग्निपुराण एकाक्षर कोष ओर अक्षर चिह्न के रूपसे समझ सकते है।


अश्वमेध यज्ञ

सजीव, सप्त कुंफलिनी यानी सप्त अश्व वाले घोड़े के रथमे सुषुप्त मनुष्य को जब कोई आचार्य रूप सारथी सम्भालते है तो वह ब्रह्म के द्विज आयाम में कंकण की तरह गोल हो जाता है। एकही पहिये वाले चक्र रूपी रथ में ब्रह्मांड भ्रमण से हनुमानजी को गतिमय रूपसे ज्ञान देता है, जो वायु बिचरन से जल एवं पृथ्वी पर "थ" रूपको समझने वाले ऋषि लोगों को समजाते है। लोग अश्व मेघ को न जाने क्याक्या समझते है।



राजसूय यज्ञ

यहां सूर्य नही पर सूय है। जैसे कि "समय" वैसे ही सउय । र आयाम बगैर का  "अ" या "ब " का जीव स्वरूप , जिसे स्वर्ग के समीप  या स्वर्ग को सह जीवन प्राप्त करना है वह व्यक्ति। 
उदाहरण के तौर पर विष्णु ने यज्ञ में कमल का फूल न मिलने पर आंख दी थी वह एक सोचनीय बात है कि स्व अर्ग या अर्घ्य  कितनी बड़ी बात है। 
जैन लोगों को संथारा मूलभूत बात मालूम होगा।



पुण्डरीक यज्ञ

उ प अंड इर क़
उप मतलब छोटा या छोटी 
अंड शब्द से महत्तम लोग अवगत है।
इर मतलब शरीर या इच्छा वाला सजीव मनुष्य
मतलब निर्देशानुसार निश्चित क्षेत्र की बात।

पुण्डरीक नाम इंद्र का है जिसे यज्ञ में स्थान नही फिरभी वह उचित तोर पर तो नामोल्लेख किया है। 

पंच तत्व वाले शरीर का अण्ड से शरीर प्राप्त करने के लिए निश्चित क्षेत्र का यजन वहभी यज्ञ से होमात्मक  द्रव्य के पर्याय के रूपमे।
जैन में आयंबिल की बात भी है। आयंबिल मतलब जीवन भर या कुछ महीने या कुछ दिन नियत या निश्चित धान को ही खुराक से भक्षण से शरीर का प्रोक्षण करना या किसीसे कराना ।  यज्ञ में होता यानी आचार्यजी को मालूम होता है।



गवामयन
ग्वालियर प्रदेश मध्य प्रदेश में खूब प्रचलित है। 
यहां "ग्वा" का मतलब वा + ग 
संस्कृत में खोडाक्षर वाले स्वर व्यंजन होते है। 
आधा क  + आधा क = ग 
जैसेकि आधा त + आधा त = द बृहत्कथा या बृहन्नला में बृहद शब्द का प्रावधान सिर्फ बृह या बृहत के रूपमे है। वैसे ही यहाँ संस्कृत में  वाक शब्द है। जैसे की वाग्दत्ता। 

यहाँ ग्वाम का सीधा मतलब 
आवृत अ कार का अम स्वरूप ग कार के रूप में।
देवीभागवत में माँ के गंड स्थल ओर योनि की बात है।  उसीका अयन करना, मतलब किसीका अर्क या निष्कर्ष लेना या कराना।

सामाजिक रूपमे पूर्ण शब्द ग्वामयन यज्ञ



अतिरात्र यज्ञ 
गुजरात मे गरबा प्रचलित है। और संस्कृत में उसे अहोरात्र कहते है। जो नौ दिन तक देवी की पूजा अर्चना में चैत्र ओर आसो महीने में होते है। 
जब घटोत्कच युद्ध मे था तब रात्रि युद्ध हुआ था। तब राक्षसी माया का सामना करना भारी था। 
उसी को एक दिन को अतिरात्र यज्ञ कहा है।
अति मतलब ज्यादा 
इर अत्र मतलब  त्रिगुणातीत गुणः त्रयी अवस्था वाला शरीर , जो अंधकारमय अवस्था मे होता है।
इसीसे धर्म की स्थापना के लिये कर्ण को शक्ति से घटोत्कच का हनन करने हेतु कृष्ण ने दुर्योधन को मजबूर किया कि जिससे धर्म क्षेत्र की स्थापना में र आयामित राक्षस क्षेत्र सीमित मात्रा में ही रहे।
घटोत्कच शब्द भी विशेष है।


इसके अलावा भी कई यज्ञ है जिसमे से कुछ इस प्रकार है.....
वाजपेय यज्ञ
अग्निजित् यज्ञ 
देव यज्ञ
ब्रह्म यज्ञ
संयम यज्ञ
इन्द्रिय यज्ञ
आत्म यज्ञ
द्रव्य यज्ञ
स्वाध्याय यज्ञ
ज्ञान यज्ञ
प्राण यज्ञ
आहार यज्ञ

For other details see the website mentioned here under


Jay Gurudev Dattatreya and Jay Hind

जिगर महेता / जैगीष्य

Saturday, October 3, 2020

ઓ ઇશ્વર

Rohtang pass world's biggest Atal tunnel 
કવિ શ્રી દલપતરામ ને જન્મદિવસે સાદર વંદના ...આ કવિતા થી યાદ કરીએ, જેની પહેલી બે કડી રાત્રે સૂતી વખતે ......

આખી કવિતા વાંચ્યા ને તો ઘણો સમય થઈ ગયો હશે!!


 ઓ ઇશ્વર ભજીએ તને, 
મોટું છે તુજ નામ
ગુણ તારાં નિત ગાઇએ, 
થાય અમારાં કામ.

હેત લાવી હસાવ તું, 
સદા રાખ દિલ સાફ
ભૂલ કદી કરીએ અમે, 
તો પ્રભુ કરજો માફ.

પ્રભુ એટલું આપજો, 
કુટુંબ પોષણ થાય
ભૂખ્યા કોઇ સૂએ નહીં, 
સાધુ સંત સમાય.

અતિથિ ઝાંખો નવ પડે, 
આશ્રિત ના દુભાય
જે આવે અમ આંગણે, 
આશિષ દેતો જાય.

સ્વભાવ એવો આપજો, 
સૌ ઇચ્છે અમ હિત
શત્રુ ઇચ્છે મિત્રતા, 
પડોશી ઇચ્છે પ્રીત.

વિચાર વાણી વર્તને, 
સૌનો પામું પ્રેમ
સગાં સ્નેહી કે શત્રુનું, 
ઇચ્છું કુશળક્ષેમ.

આસપાસ આકાશમાં, 
હૈયામાં આવાસ
ઘાસ ચાસની પાસમાં, 
વિશ્વપતિનો વાસ.

ભોંયમાં પેસી ભોંયરે, 
કરીએ છાની વાત
ઘડીએ માનમાં ઘાટ તે, 
જાણે જગનો તાત.

ખાલી જગ્યા ખોળીએ, 
કણી મૂકવા કાજ
ક્યાંયે જગકર્તા વિના, 
ઠાલુ ના મળે ઠામ.

જોવા આપી આંખડી, 
સાંભળવાને કાન
જીભ બનાવી બોલવા, 
ભલું કર્યું ભગવાન.

ઓ ઇશ્વર તું એક છે, 
સર્જ્યો તે સંસાર
પૃથ્વી પાણી પર્વતો, 
તેં કીધા તૈયાર.

તારા સારા શોભતા, 
સૂરજ ને વળી સોમ
તે તો સઘળા તે રચ્યા, 
જબરું તારું જોમ.

અમને આપ્યાં જ્ઞાન ગુણ, 
તેનો તું દાતાર
બોલે પાપી પ્રાણીઓ, 
એ તારો ઉપકાર.

કાપ કલેશ કંકાસ ને, 
કાપ પાપ પરિતાપ
કાપ કુમતિ કરુણા કીજે, 
કાપ કષ્ટ સુખ આપ.

ઓ ઇશ્વર તમને નમું, 
માંગુ જોડી હાથ
આપો સારા ગુણ અને,
સુખમાં રાખો સાથ.

મન વાણી ને હાથથી, 
કરીએ સારાં કામ
એવી બુધ્ધિ દો અને, 
પાળો બાળ તમામ.

*કવિ દલપતરામ*

*શ્રી દલપતરામની આ કવિતા*
*જેટલી વાર વાંચીએ*
*એટલી વાર ભગવાન ઉપર*
*આપણો અહોભાવ વધતો જ*
*જાય છે...*

*આ ઉપરાંત ભગવાન પાસે*
*શું માંગવું અને કેવી રીતે માંગવું*
*અને કેવી રીતે આભાર*
*વ્યક્ત કરવો એ બધુજ*
*આ કવિતામાં આવે છે*

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Thursday, October 1, 2020

Why God needs musical instruments

Shiv has Damru

Naarad has Mahati or tambura Hanuman has khanjree type kartal

Vishnu has Shankh and Krishna has Bansree and his grand son Anirudh has Bhogal

Saraswati has Sharda Veena


It's hard to mention in English as need sanskrut pronouncing alphabet and words... Henceforth using Hindi in narration.. You can translate it by Google...

Shiv has Damru

Ish v tatva which is seen by us in three dimensions but what is inside of body are unknown to us but that b tatva need to move out from that ish tatva which is harmful so how you put make a road to that convenient way... 

Damru has Naad and that is with dab dab, dham dham, and when your hand put on any body's part the voice had unique drum type nose and not on same portion but the side portion getting healing or vibration and by that way the b tatva forward by the randhra side whatever you decide to put or move out side for the inner bad tatva for saving b tatva...

The urja automatically developed by that noise on same part where you put your hand by force... It is helpful for getting Chetan tatva for b tatva... And thus the Naad Brahm using by the lord shiv...

Basically we can control inner body's air and liquid form from Naad Brahm ...

Naarad has Mahati or tambura and Hanuman's  kartal

Naarad is a media man of all lord and he need to move one place to another ... It's like the work as antahastrav and utsechak... Of our body...

Basically r is counted as for liquid form... He is using tambura and by that way the more heavy vibration using by him for moving his body at nearby place....

Inside body if antahastrav and utsechak are not fulfilled the necessary chamicle at needed place the inbuilt lisozom killing the cell... so now probably we can understand the space travel of Naarad with tambura...

Vishnu has Shankh, Krishna's flute and Anirudh has Bhogal

Shankh for front side things
Flute for besides things
Bhogal for back side

Shankh dhvani has uniq in mode and when you want spacious specific air molecular structure you can used it by it's rythem ... The moved out air of shank having forces of inner body's mouth air henceforth by that getting and giving direction to air molecular parmanviya any.... Saving self from upcoming any little vibration ... At even battlefield... You can give direct msg to the pawn where you need to move on special noise of special shank as each and every shank has different frequencies volume generation skills as per mouth...

The same is for flute or Bansree not not directly front side but you can get force of mouth air in rythem and giving or making safe distance to besides bad energy...

Aniruddh is Krishna's grand son and he is using Bhogal which is rare and great vadya which is put it's effort and effective effects back side of body by mouth's air... Hidden story is different but telling truth... Future generations need to develop his own good sanskar so need to making safe distance from past's bad things using Bhogal is good...


Saraswati has Sharda Veena

It's unique two kalash attached both side, tambura style Veena... with more vires or we can say we can getting all seven Sur with different vibration mode for balance maintain both place of our own masters mind unique thoughts...

I know little that about Prabhu ISU wha were born at Bathelham ... And his last words... People forgive them all as what they are doing, they are unknown from that...

Jay Gurudev Dattatreya

Jay Hind

Jigar Mehta / Jaigishya

यज्ञीय पदार्थ एवं पात्र परिचय

श्रौत और स्मार्त यज्ञों में प्रयुक्त यज्ञीय पदार्थ एवं पात्र परिचय


श्रौत-स्मार्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये पात्रों को आवश्यकता होती है । जिस प्रकार कुण्ड मण्डप आदि को विधि पूर्वक निर्धारित माप के अनुसार बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ-पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है । विधि पूर्वक बने यज्ञ-पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है । 

नीचे कुछ यज्ञ-पात्रों का परिचय दिया जा रहा है । इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभिन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रन्थों के आधार पर दिया जाता है।


१-अन्तर्धान काट 
वारण काष्ठ का आध अंगल मोटा, बारह अंगुल का अर्थ चन्द्राकार पात्र । गार्हपत्य कुंड के ऊपर पत्नी संयाज के समय देव पलियों को आड़ करने के लिए इसका उपयोग होता है।

२-पशु-रशना 
तीन वाली बारह हाथ को पशु बाँधने की रस्सी।

३-मयूख 
गूलर का एक अंगुल मोटा, बारह अंगुल का वत्स-बन्धन के लिये शकु मयूख होता है।

४-वसा हवनी
पाक भाण्ड स्थित स्नेह-बसा हवन करने का जूहू सदृश घाऊ का सुक ।

५-वेद
दर्शपूर्णमासादि में ५० कुशाओं से रचित वेणी सदृश कुशमुष्टि ।

६-कर्पूर-
चातुर्मास्यादि यज्ञ में बड़े गर्त्तवाला धान पूँजने का पात्र ।

७-अनुष्टुब्धिः-
जुहू सदृश पीपल का सुक ।

८-विष्टतिः-
उद्गाता द्वारा साम मन्त्रों की गिनती के लिये, नीचे चतुरस्र ऊपर गोल, दश अंगुल की शलाका ।

९-पूर्ण पात्र-
दर्शादि इष्टि में यजमान के मुख धोने के लिये जल रखने की स्मार्त-प्रोक्षणी ।

१०-शराव-
पायस रखने के लिए मृत्तिका का बढ़े मुख एवं लोटे वाला पात्र ।

११-शकट-
सोम को रखने के लिए वारण काष्ठ का ढाई हाथ लम्बा त्रिकोण, डेढ़ हाथ चौड़ा दो हाथ ऊँचा शकट, जिसमें एक हाथ ऊँचे दो चक्र हों।

१२-परिप्लवा-
कलश से सोमरस निकालने वाला काष्ठ का बना सुक, दस अगुल लंबा हंसमुख सदृश नालीदार पाँच अंगुल गोलाई में बना हुआ ।

१३-पशुकुम्भी-
पशु श्रवण के लिये तैजस् पात्र ।

१४-मुसल-
खैर काष्ठ का बना, मध्य में कुछ मोटा दस अंगुल का मूसल ।

१५-ऋतुग्रह पात्र-
काष्मरी या पीपल का बना प्रोक्षणी पात्र जिसमें हंसमुख सदृश नलिका होती हैं ।

१६-आज्यस्थाली-
घृत गर्म करने का मण्मय पात्र।

१७-उपवेष-
अंगारों को दूर करने के लिये वारण काष्ठ का बना, हाथ के सदश पाँच अंगल बना हुआ दण्ड।

१८-स्थाली-
सोमरम रखने की मृण्मयी थाली ।

१९-इडापात्री-
ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु, अग्नीत् और जाता है। यजमान के भाग रखा जाने वाला पात्र ।

२०-मेक्षण-
चरू हष्टि में इससे चरू का ग्रहण ओर होम होता है।

२१-पृषदाज्य ग्रहणी-
पीपल का सुक, जिससे दधि मिश्रित घी ग्रहण किया जाता है।

२२-प्रचरणी-
सोम याग में वैकडूत काष्ठ का बना 

२३-परशु-
खदिर काष्ठ का बना हुआ परशु ।

२४-अग्नि होत्र हवणी-
श्रौत अग्नि होत्र में तोड़ने के लिये विककत-काष्ठ का बना, जुहू के सदृश्य बाहु मात्र लम्बा स्रुक।

२५-अभ्री-
वारण काष्ठ की बनी नुकीली अध्रि का वेदी खनन में उपयोग होता है।

२६-दोहन पात्र-
वैकंकत का प्रणाली रहित सदण्ड पोरोक्षणी पात्र सदृश आकार होता है ।

२७-दर्वी-दण्ड सहित कलछी ही दर्वी है ।

२८-अधिपवण-
फलक-(दृढ़)धारण काष्ठ के बने सोमलता कूटने का एक हाथ लम्बा, बारह अंगुल चौड़ा दो काष्ठ फलक होते हैं।

२९-असिद-
कुशा काटने के लिये खैर का छुरा ।

३०-अन्याहार्य पात्र-
दर्शपूर्ण-मास में, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्नीघ्र को दक्षिणा में दिया जाने वाला ओदन जिसे पात्र में पकाया जाता है।

३१-ग्रावा-
पत्थर का बना सोलह अंगुल का मूसल, जिससे सोमलता कूटी जाती है।

३२-उपमृत-
पिपलकी जुहू सदृश स्रुक उपभृत होती है।

३३-उत्पवन पात्र- प्रोक्षणी पात्र सदृश होता है।

३४-उपांशु सवन-
उपांश नामक सोमलता को जिस पाषाणसे कूटा जाता है वह।

३५-उलूखल-
पलास, खैर, वारण का जानु प्रमाण ऊखल।

३६-एक धन-
सोमरस को बढ़ाने वाले जल ।

३७-मूरशल-
वारण पलास, खैर का दश अंगुल का मूरशल।


३८-जुहू-
श्रौत कर्म में जिस सुक से हवन किया जाता है।

३९-चमस-
चौकोर प्रणीता पात्र सदृश सोमरस को रखने, होम करने और पानी के लिये चमस होते हैं। ये दस भौति के होते हैं।

४०-यजमानाभिषेक सन्दी-
वाजपेय यज्ञ में यजमान को बैठने के लिये मूंज की बनी हुई एक हाथ लम्बी चौड़ी चतुष्कोण:-लघु खाट ।

४१-यूपरशना-
आठ हाथ लम्बी दूनी कुश की रस्सी, यूप में लपेटने के लिये यूपरशना होती है ।

४२-शृतावदान-
पितृ-यज्ञ में पक्व पुरोडाश तोड़ने के लिये विर्ककत-काष्ठ का होता है।

४३-पूत भृत-
सोम रस धारण करने वाले स्वर्ण या मृण्मय-कलश।

४४-पुरोडाश पात्री-
वारण काष्ठ की पुरोडाश के स्थान में प्रयुक्त होने वाली पात्री ।

४५-पिन्वन-
वारण का सुक मुख सदृश बना बिना दण्ड का पात्र ।

४६-पान्तेजन कलश-
पशु अङ्गों को प्रक्षालन करने का जल जिस कलश में रखा जाता है ।

४७-परिशास-
कलछी मुख के सदृश महावीर पात्र को पकड़ने लायक गूलर के बने पात्र ।

४८-सन्नहनः-
इध्म(यज्ञ हेतु लकड़ी) और वर्हि बाँधने के लिये कुशा की वेण्याकार गुंथी रस्सी ।

४९-होतृ सदनः-वरना काष्ठ की बनी होता के
बैठने की पीठ ।

५०-सोमा सन्दी-
गूलर की बनी चार पाँवों वाली मुञ्ज की रस्सी से बनी हुई सोम रखने के लिए बनी आसन्दी।

५१-सोम पर्याणहन 
वस्त्र से बंधे सोम को ढाँकने का वस्त्र ।

५२-सम्भरणी-
वारण काष्ठ का बना सोम रखने का कटोरा ।

५३-शंकु -
गूलर का दश अंगुल लम्बा अग्निष्टोमादि यज्ञ में दीक्षिता पत्नी के कन्डूयनादि में उपयुक्त होने वाला।

५४-उदत्रवन-
सोम याग में अम्भृण पात्रों से जल निकालने के लिये मिट्टी की दो हाथ लम्बी, सुत्री के मुख से दूने मुख की, जुहू सदृश सुक ।

५५-उदयमनी-
उदुन्बर की दो हाथ लम्बी, स्रूचि के मुख से दुगने मुख वाली, जुहू सदृश सुक ।

५६-इध्म-
पलाश की एक हाथ लम्बी, सीधी,सुन्दर त्वचा सहित एकशाखा वाली समिधा ।

५७-वर्हि 
असंस्कृत तथा असंख्यात कुशा ।

५८-सम्भरण पात्र-
वाजपेय यज्ञ में हवन किये जाने वाले सत्रह प्रकार के अन्नों को जिस पात्र में रखा जाता है।

५९-वाजिन भाण्ड-
फटे दूध के द्रव भाग (वाजिन) को जिस भाण्ड में रखा जाता है।

६०-उपसर्जनी पात्र-
यजमान के लिये गार्हपत्य अग्नि में जल को इस पात्र में गर्म किया जाता है।

६१-रौहिणकपाल-
मृत्तिका का पका पकायापात्र जो रौहिणक पुरोडाश पकाने के लिये बनाया जाता है।

६२-योकत्र-
दर्शपूर्णमासादि यज्ञ में यजमान पत्नी के कटि प्रदेश में बांधने के लिये तीन लड़ी मुञ्ज की बनी वेणी सदृश रस्सी ।

६३-उद्गानासन्दी-
गवामय गवामयन यज्ञ में उद्गाता बैठने के एक हाथ लम्बी चौड़ी मुञ्ज से बिनी मीड़।

६४-विघन-
पीपल का एक हाथ का शंकु ।

६५-विकङ्कत शकल-
विकङ्कत काष्ठ की दश अंगुल की समिधा ।

६६-दण्ड-
सोमयाग में यजमान तथा मैत्रावरुण के लिये मुख तक लम्बाई का गूलर का बना दण्ड ।

६७-दधि धर्म-
प्रग्वर्य में दस अंगुल का दधि को ग्रहण तथा हवन के लिये गूलर का बना पात्र ।

६८-दारुपात्री-कात्यायनों की पात्री ।

६९-धवित्र-मृगचर्म से बना पंखा ।

७०-धृष्टि-
अंगार भस्मादि हटाने के लिये विकेकत काष्ठ का बना पात्र ।

७१-कृष्ण विषाण-
कृष्ण मृग का शृंग ।

७२-वाजिनचमस 
फटे दूध के द्रव भाग को रखने का प्रणीता सदृश पात्र।

७३-गलग्रही 
तांबा या पीतल की एक हाथ की सण्डसी।

७४-स्रुक-
विकंकत काष्ठ का बना बाहु प्रमाण लम्बा हवन करने का हंसमुख सदृश चौंचदार पात्र ।


७५- यूप 
खैर का बना लम्बा शंकु । इसकी लम्बाई भिन्न यज्ञ में भिन्न रखी जाती है।

७६- ग्रह
यह विवेकत काल का बना उलूखल सदृश सोमरस तथा होमोपयोगी वस्तु रखने का पात्र ।

७७-स्फय 
अप्रवेदी को खोदने रेखा करने के लिये एक हाथ लम्बा चार अंगुल चौड़ा खैर काष्ठ का वज्र दंड।

७८-स्रुवा 
होम करने के लिये खैर- का बना गोल छि संयुक्त एक हाथ लम्बा पात्र ।

७९- ऋतु पात्र ग्रह काष्मर्य-
पीपल के प्रोक्षणी पात्र सदृश दोनों तरफ हंसमुख सदृश
सोमरस ग्रहण करने का पात्र ।

८०-प्रोक्षणधानी-
जुहू(अग्नि में घी की आहुति देने का अर्धचन्द्राकार चम्मच) के सदृश बना स्रुक

८१-शूल 
धारण काष्ठ का बना, अभि सदृश शूल होता है।

८२-पाशिनहरण-
ब्रह्मा को हुत शेष, इस चार - अंगुल लम्बे-चौड़े वारण काष्ठ से बने चौकोर पात्र द्वारा दिया जाता है।

८३-निश्रेणी-
वाजपेय यज्ञ में सत्रह हाथ यूप से ऊपर जाने के लिये वारण काष्ठ से बनी सीढ़ी।

८४-नेत्र-
सन और गौपुच्छ के वालों से बनाई गयीचार हाथ की तीन लड़ वाली गूंथी हुई वेणी ।

८५-निदान-
सोमयाग में गौ तथा बछड़े को बांधने के लिये बनी रस्सी।

८६-चात्र उपमन्थ 
अरणि मन्थन के लिये आठ अंगुल का बना काष्ठ शंकु ।

८७-चपाल-
सोमयाग में पलास का दश अंगुल लम्बा एक अंगुल गोल आर-पार छिद्र वाला पात्र विशेष ।

८८-शम्या-
दर्शपूर्ण मासादि में सिल-लोढ़ी के कुट्टन आदि में प्रयुक्त होने वाला पात्र विशेष ।

८९-षडवत्तपात्र-
अग्नीध्र ऋत्विक् को भाग देने के लिये वारण काष्ठ का बना एक विशेष प्रकार का पात्रा।

९०-सगर्तपुरोडाशपात्री-
सर्वहुत पुरोडाश के स्थापन और होमादि में प्रयुक्त होने वाला पात्र ।

९१-स्वरू
पशुलता स्पर्श एवं होमादि में प्रयुक्त होने वाला दश अंगुल का पगाकार पात्र।

९२-स्थूण-
गौ मांधने के लिये बनी दी।

९३-सेम्मोपनहन-
सोमलता बाँचे जाने वाले दोहरे चौहरे वन्त्र।

९४-दृषत उपला-
पुरोडाश के पेषण में प्रयुक्त होने वाले दश अंगुल लम्बे आठ अंगुल चोड़े पाषाण।

९५-करम्भ पात्री-
दक्षणरिन में पक्य रातु तथा दधि रखने के छोटे-छोटे गोला पात्र ।

९६-पञ्चबिलापात्री:-
कृष्ण यजुर्वेदियों के काम आने वाला पात्र।

९७-पिशीलक-
चातुर्माससान्तर्गत गृहमेपि में उपयोग होने वाला पायस रखने का भातु का बढ़े मुख वाला पात्र ।

९८-परिवेचन घट-
आपस्तम्ब के लिये आधबनीय सदृश कलश ।

९९-त्रिविला पात्री-
वारण काठ से बना एक विशिष्ट भाँति का बना पात्र ।

१००-दशा पवित्र-
जीवित भेड़ के ऊनों से बना सोमरस छानने के लिये बना हुआ छन्ना ।

१०१-कूर्च-
सायं-प्रात: अग्निहोत्र के समय स्रुक रखने का वारण काष्ठ से बना पात्र विशेष ।

१०२-ओविली-
मन्थन-दण्ड को दबाने के लिये खैर काष्ठ का बना उपमन्थ ।

१०३-समित्-
पलासादि की दश अंगुल लम्बी सुन्दर अविशाखा लकड़ी।

१०४-महावीर-
सोमयाग में दीपक रखने के लिये मृत्तिका से बना एक विशिष्ट पात्र ।

१०५-मेखला-
यजमान के कटि-प्रदेश में बाँधने के लिये चार हाथ की मुञ्ज से वेणी सदृश गुंथी रस्सी।

१०६-तानूनस्त्र चमस-
इष्टि के अनन्तर सोलहों ऋत्विक जिस घृत को स्पर्श कर
परस्पर अद्रोह की शपथ लेते हैं, उस घी को रखने का पात्र ।

१०७-धर्मासन्दी-
धर्म सम्बन्धी सभी पात्रों को रखने के लिये तीन हाथ ऊँचा गूलर का बना आसन विशेष ।

१०८-धुवा-
वारण काष्ठ का बना जुहू के सदृश वाहुप्रमाण स्रुक जो यज्ञ के अंत तक रखी जाती है।


चित्र 1
चित्र 2
चित्र 3
चित्र 4

जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद

This is in link of my past experience of blogs details ... Read again the same book in 2020 September... see the link



यज्ञ का ज्ञान विज्ञान विषय सूची मात्र

विषय-- यज्ञ की सूची


अध्याय 1

गायत्री यज्ञ

जपयोगिता और आवश्यकता 

दैनिक जीवन में अग्निहोत्र की आवश्कता 

गायत्री और पज "अजस्र" विभूतियों के भण्डार 

गायत्री और यज्ञ का तत्वज्ञान

ज्ञान और विज्ञान के शक्ति स्रोत गायत्री और यज्ञ 



अध्याय-२

यज्ञ की अनिर्वचनीय महत्ता

यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्

यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म

जीवन को यज्ञमाय बनाएँ

अन्नम बाह्ये वेदः

'यज्ञ' भारतीय दर्शन का इष्ट आराध्य

यज विश्व का सर्वोत्कृष्ट दर्शन

मनीषियों की दृष्टि में यज्ञ

कल्याण का श्रेष्ठम मार्ग- यज्ञ

जीवन यज्ञ की रीति-नीति

सारा जीवन ही यज्ञमय बने

यज्ञ द्वारा देवों का आवाहन

हे पवित्र। अपनेको यज्ञ में जोंक दे

यज्ञ द्वारा देवो का आह्वाहन

देश-शक्तियों का सन्तुलन

यज्ञ द्वारा देव-शक्तियों को तुष्टि

यज्ञों से देव-तत्वों की परिपुष्टि

यज्ञ से सम्पूर्ण जगत का पालन कैसे?

यज्ञपुरुष और उसकी महिमा

हिन्दू धर्म में यज्ञों का स्थान तथा प्रयोजन

वेदों में यज्ञ की महिमा

उपनिषदों में मज्ञ-रहस्य का वर्णन

गौता में यज्ञ की महिमा

रामायण में यज्ञ-चर्चा

श्रीमद्भागवत में यज्ञ माहात्म्य

महाभारत में यज्ञ

पुराणों में यज्ञ-माहात्म्य के

सिख धर्म और बज्ञ-हवन

वेद में यज्ञों का बैज्ञानिक स्वरुप

यज्ञ से रोग निवृत्ति

यज्ञ से सूक्ष्म-शक्ति का प्रादुर्भाव

यज्ञ से परिपूर्ण वर्शा

प्राण-शक्ति को अभिवृद्धि

उत्तम सन्तान की प्राप्ती

पशुओं को परिपुष्टि

अक्षय कीर्ति का विस्तार

यज्ञ द्वारा मानिसक पवित्रता

याज्ञा द्वारा प्रसा और मेधाबुद्धि की प्राप्ती

यज्ञ द्वारा परमात्म दर्शन

यज्ञ से मोक्ष प्राप्ति



अध्याय 3

यज्ञ के विविध लाभ

यज्ञ हवन से सुखों को खरीदते हैं

यज्ञ से सुसन्तति की प्राति

शत्रु-संहार में यज्ञ का उपयोग

यज्ञ द्वारा पापों का प्रायश्चित

यज्ञ तारा तीर्थों की स्थापना

यज्ञ से आम-शान्ति

त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा

यज्ञ कर्ता अहणी नहीं रहता

यज्ञ द्वारा तीन ऋणों से मुक्ति

बाना-अनुष्ठान विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति

सकाम यज्ञों का रहस्यमय विज्ञान

यज्ञ द्वारा विश्व शान्ति की सम्भावना



अध्याय-४

विश्व कल्पतरू यज्ञ

'यज्ञ' ज्ञान और विज्ञान का भाण्डागार

यज्ञ का महान तत्वज्ञान

यज्ञोयत्र पराक्रान्तः

यह संसार यज्ञ है

मानव समुदाय का सुसंगठित स्वरूप ही मनुष्य यज्ञ है

मनुष्य का सुव्यवस्थित-जीवन ही यज्ञ है

यज्ञ के प्रकार

ब्रह्म यज्ञ

देव यज्ञ

पितृ-यज्ञ

नृ यज्ञ

भूत बलि या वैश्व देव यज्ञ

यज्ञ का क्षेत्र

यज्ञ प्रयोजन



अध्याय 5

गायत्री यज्ञ विधान

यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा

यज्ञ और पशुबलि

यज्ञ पर असुरता के आक्रमण

यज्ञ महा अभियान की सम्भावित कठिनाइयाँ ।

यज्ञ को सहयोग

यज्ञ में रहीं हुई त्रुटि

यज्ञ में पालन करने योग्य नियम

ब्राह्मदेव कृत सामूहिक पज्ञ

भ्रांति का निवारण

यज्ञ विरोध की जांच

यज्ञ के हवन च समिधा सामग्री

यज्ञ का मुहूर्त

कुण्ड एवं मण्डप का निर्माण

कुण्डों की रचना एवं भिन्नता का उद्देश्य

कुराह और उनकी संख्या

यज्ञशाला, यज्ञमण्डप और उसका निर्माण

श्रौत और स्मार्त यज्ञों में प्रयुक्त यज्ञीय पदार्थ

यज्ञ में मन्त्र-शक्ति के प्रखर प्रयोक्ता

यज्ञ से सूक्ष्म संस्कार का समुद्भव

यज्ञ-प्रायोजन में सुसंस्कारिता का समावेश



अध्याय-६

यज्ञ कर्मकाण्ड प्रकरण

बड़े और छोटे यज्ञ के हवन का क्रम 

अतिसंक्षिप्त हवन

यज्ञीय कर्मकाण्ड प्रकरण (कर्मकाण्ड प्रारम्भ)

साधनादि पवित्रीकरण

यज्ञ संचालन

मंगलाचरण

पवित्रीकरण

आचमन

शिखा-बन्धन

प्राणायाम

अभिसिंचन

अघमर्षण

न्यास

पृथ्वी-पूजन

संकल्प

यज्ञोपवीत परिवर्तन

चन्दन धारण

अथ वरण

आचार्य प्रार्थना

ब्रह्मावरण

ऋत्विगावरण

रक्षा-सूत्र

कलश-स्थापना

दीपपूजन

गणेश-गौरी पूजन

पुरुष-सूक्तम्

षोडशोपचार देव पूजन

पंचोपचार

षोडशोपचार पूजन

पुल्लिंग रूप से षोडशोपचार पूजन

स्त्री रूप से षोडशोपचार पूजन

अथ नवग्रह स्थापना-पूजन

प्रार्थना

गायत्री-आवाहन

गायत्री अष्टक

छ: दिशाओं में देव स्थापन एवं पूजन

देवों का आवाहन

सर्व देव नमस्कार

पंचवेदी स्थापना

अथ अन्तरिक्ष सूक्तम् (प्रधान येदी)

अथ अग्नि सूक्तम् (अग्नि कोण)

अथ वरुण सूक्तम् (नैऋत् कोण)

अथ वायु सूक्तम् (वायव्यकोण में)

अथ भू सूक्तम् (ईशान में)

स्विष्टकृत भोग

सर्वदेव-स्थापन के लिए सर्वतोभद्रचक्र

मण्डल वाह्यक श्वेतपरिद्यो उत्तरादि क्रमेण

गदाद्यष्टायुध देवता स्थापनम्

मण्डल बाह्ये रक्तपरिधौ उतरादि क्रमेण

गौतमाद्यष्ट देवता स्थापनम्

मण्डल वाह्ये कृष्णपरिधौ पूर्यादिक्रमेण

ऐन्द्र आदिअष्टदेवता स्थापनम्

लघु-सर्वतोभद्र-मण्डल पूजन

स्वस्ति-वाचन

रक्षाविधान

पंच भू संस्कार

कुण्ड प्रतिष्ठा एवं मेखला पूजन

प्रथम मेखला (ब्रह्मा, रंग, सफेद) का पूजन मन्त्र

मध्यमेखला पूजन मन्त्र (देवता विष्णु, रंग लाल)

अन्तिम मेखला पूजन मन्त्र (देवता रुद्र, रंग काला)

पंचामृत

कुश-कण्डिका

अत्र वा ब्रह्मावरणं कुर्यात्

ततो ब्रह्मा वृतोऽस्मि

ततो वर्हिषापरिस्तरणम्

प्रोक्षण

अग्नि स्थापना एवं पूजन

स्तवन पाठ

अग्नि प्रदीपनम्

समिधाधान

जल प्रसेचन

आज्याहुति

पंचवारुणी होम

नवग्रहाणां होम

नवग्रहाऽधि देवता होम

नवग्रह प्रत्यधि देवता होम

पंच लोकपाल होम

दशदिक्पाल होम

सर्वतोभद्र मण्डल देवता होम

प्रधान देव का होम गायत्री की आहुति

स्विष्टकृत होम

पूर्णाहुति होम

वसोर्धारा

बर्हि होम

ततो ब्रह्मग्रन्थि विमोकः

तर्पण

नीरंजन आरती

घृत-अवघ्राण

भस्म-धारण

क्षमा-प्रार्थना

साष्टांग नमस्कार

शुभकामना

शान्ति अभिसिंचन

पुष्पाजंलि

सूर्यार्घ्य दान

प्रदक्षिणा

दिक्पालों को बलिदान

बलिदान क्रिया

बुराइयाँ

अच्छाइयाँ या सद्गुण

बलिदान-संकल्प

क्षमा-प्रार्थना

यज्ञ भगवान की स्तुति

विसर्जन

अथाऽभिषेक:

तिलक एवं फलदान

दक्षिणावाद का स्वरूप



अध्याय-७

दैनिक उपासना में अग्निहोत्र का समावेश ।

सरल संक्षिप्त हवन-विधि

पवित्रीकरण

आचमनम्

प्राणायम मन्त्र

न्यास:

पृथ्वी पूजनम्

कलश पूजनम्

देव पूजनम्

सर्वदेव नमस्कारम्

षोडशोपचार पूजनम्

स्वस्तिवाचनम्

रक्षाविधानम

अग्नि स्थापनम

गायत्री स्तवन

समिधाधानम्

जल प्रसेचनम

आज्याहुति होमः

स्विष्टकृत होमः

पूर्णाहुति

आरती

घृत अवघ्राण

भस्म धारण

क्षमा-प्रार्थना

साष्टांग नमस्कार

शुभकामना

अभिसिंचनम्

आरती गायत्री जी की

यज्ञ की महिमा

अर्घ्यदान

प्रदक्षिणा

विसर्जनम्



अध्याय-८

आर्यसमाज की हवन पद्धति

ईश्वर स्तुति-प्रार्थनोपासना मन्त्राः

अथ शान्ति प्रकरणम्

आचमन मन्त्राः

अंग स्पर्श:

कार्यारम्भ

अग्न्याधानम्

अग्नि प्रदीपनम्

समिधा धानम

घृत सिंचनम्

जल प्रसेचनम्

होमाहुति

आधारावाण्याहुति

आज्याभागाहुति

प्रात:काल हवन मन्त्रा:

सायंकाल हवन मन्त्राः

गायत्री मन्त्रः

पूर्णाहुति




अध्याय-९

गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था

यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप

मानव प्रगति का मूलतत्त्व

सुख शान्ति की आधारशिला

विकृतियों का निवारण

संसार की सर्वोत्तम सेवा

अग्निहोत्र के लाभ

वैज्ञानिक आधार

पुरोहित की मार्मिक शिक्षा

लोक-शिक्षण का प्रखर माध्यम

आन्दोलनात्मक व्यापक प्रयत्न

क्रियाकृत्य की विधि-व्यवस्था

उपयोगिता ध्यान में रखी जाय

इन बातों का स्मरण रखें

इन प्रवृत्तियों को पनपाया जाय

बलिदान की तैयारी

गायत्री यज्ञों के स्मारक

अवांछनीय मूढ़ताएँ न अपनायें

युग निर्माताओं का प्रशिक्षण

भावनाओं का परिष्कार-मूल प्रयोजन



अध्याय-१०

गायत्री यज्ञों की विधि व्याख्या

जलयावा

यज्ञशाला-प्रवेश

पवित्रीकरण

आचमन

शिखा बन्धन

प्राणायाम

न्यास

पृथ्वी पूजनम

यग्नोपवित धारण

वरण

संकल्प

दिप पूजन

कलश पूजन

पंचवेदी स्थापनम

सर्वतोभद्रमण्डल पूजन

षोडशोपचार पूजन

पंच वेदी पूजन

देव पूजन

नमस्कार

चन्दन धारण

स्वस्ति वचन

रक्षा विधान

पंच भू संस्कार

कुंड प्रतिष्ठा

मेखला पूजन

कुश कंडिका

प्रोक्षण

अग्नि स्थापन

गायत्री स्तवन

अग्नि प्रदीपन

समिधा धान

जल प्रसेचन

आज्याहुति होम

गायत्री मंत्र आहुति

स्विष्ट कृत भोग

बलिदान संकल्प

स्विष्ट कृतहोम

पूर्णाहुति

वसोधारा

आरती

धृत अवध्राण

भस्म धारण

क्षमा प्रार्थना

स अष्ट अंग नमस्कार

शुभकामनाएं

मन्त्र पुष्पांजलि

अभिसिंचन

सूर्य अर्घ्य दान

प्रदक्षिणा

सत्संकल्प पाठ


जय गुरुदेव दत्तात्रेय

जय हिंद

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राष्ट्र स्तुति

राष्ट्र स्तुति प्रियं भारतम् प्रकृत्या सुरम्यं विशालं प्रकामं सरित्तारहारैः ललामं निकामम् । हिमाद्रिर्ललाटे पदे चैव सिन्धुः प्रियं भारतं सर्...